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इक्कीसवीं सदी के ऐ भारत जिन्दाबाद

रेड फाइल
रेड फाइल
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वो देश का दीवाना , था मुफलिस अनजाना
न तन पे थी लंगोटी, न पेट में था दाना
पर गुनगुना रहा था, वो देश भक्ती गाना
है देश हित ही जीना, व देश हित मर जाना।
पगडण्डी पे बैठा वो मुझको मिल गया
मैं देखकर उसे यू बरबश ठहर गया
देखते ही देखते वह धूल में लोट गया
खिलखिला कर हंसा, खुसियों में सराबोर हो गया
बोला, वाह आज अपुन के जलवे क्या कहने हैं
प्रकृति पदत्त मिट्टी के, नये कपडे़ जो पहनें हैं।
कुछ क्षण बाद ही वह दौडा, गढ्ढे की ओर
लड़खड़ा कर गिरा, फिर उठा लगा के जोर
पॉवों को कीचड़ में डुबो लाया
बोला देखो ! मै नये जूते भी ये पहन आया।
मैंने पूछा, आप रहते कहॉ हो
मुस्कराकर बोला यहीं, आप खड़े जहॉ हो
उंगुलियों से जमीन पर, उसने खींचा एक घेरा
कहने लगा लो देख लो, यही है मकां मेरा।
ना ही कोई इसकी छत है, ना खिडकी ना द्वार
आंधी, तूफा, बादल, बिजली, सकें ना इसे उजाड़
इतना कहकर वो वहीं, धूप में ही सो गया
न जाने किन-किन, सपनों में वो खो गया।
गुनगुनाता, बड़बड़ाता, हॅसता, खिलखिलाता
गुस्साता, चिल्लाता फिर अचानक चुप सा हो जाता।
कुछ देर बाद जैसे ही वह जागा,
मैनें फिर उससे एक सवाल दागा
आप जब सोये हुए थे, सपनों में खोये हुए थे
कभी देशहित जीना देशहित मरना गुनगुना रहे थे
कभी खिलखिला रहे थे ना जाने क्या-क्या बड़बड़ा रहे थे।
इस बार आँखों में, आंसू भर वह बोला
नही भाई नहीं, मुफलिसी का ऐसा ही होता है चोला।
बहुत दिनों के बाद, मैं आज सपनों में रोटी खा रहा था
मुझे बड़ा मजा आ रहा था तभी तो खिलखिला रहा था
देखो अब मैं बिल्कुल तंदरूस्त हॅू
कौन कहता है जीर्ण-शीर्ण पस्त हूं
इसी खुशी में वो इस हद तक गुजर गया
जिन्दाबाद -जिन्दाबाद
इक्कीसवीं सदी के ऐ भारत जिन्दाबाद
कह कर वो मर गया।
लेकिन छुपे लब्जों में दुनिया वालों से
वह बहुत कुछ कह गया
‘चंचल’ को भी
अपनी मुफलिशी पर
कुछ लिखने को मजबूर कर गया।

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